राम सुखित सहनी के कलाम से—-
समस्तीपुर रोसड़ा :- क्यों किया जाता है श्रद्धाभाव से चित्रगुप्त भगवान का पूजा- अर्चना —-
वेदों के अनुसार कायस्थ का उद्गम ब्रह्मा ही हैं। उन्हें ब्रह्मा जी ने अपनी काया की सम्पूर्ण अस्थियों से बनाया था, तभी इनका नाम काया+अस्थि = कायस्थ हुआ।
हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। यम द्वितीया के दिन ही यह त्यौहार भी मनाया जाता है। यह खासकर कायस्थ वर्ग में अधिक प्रचलित है। उनके ईष्ट देवता ही चित्रगुप्त भगवान जी महाराज हैं। हिंदू धर्म की मान्यता है कि कायस्थ धर्मराज श्री चित्रगुप्त भगवान जी महाराज की संतान हैं तथा देवता कुल में जन्म लेने के कारण इन्हें ब्रह्मण और क्षत्रिय दोनों धर्मों को धारण करने का अधिकार प्राप्त है।
वर्तमान में कायस्थ मुख्य रूप से श्रीवास्तव, सिन्हा, सक्सेना, अम्बष्ट, निगम, माथुर, भटनागर, लाभ, लाल, कुलश्रेष्ठ, अस्थाना, बिसारिया, कर्ण, वर्मा, खरे, राय, सुरजध्वज, विश्वास, सरकार, बोस, दत्त, चक्रवर्ती, श्रेष्ठ, प्रभु, ठाकरे, आडवाणी, नाग, गुप्त, रक्षित, बक्शी, मुंशी, दत्ता, देशमुख, पटनायक, नायडू, सोम, पाल, राव, रेड्डी, दास, मंडल, मेहता आदि उपनामों से जाने जाते हैं। वर्तमान में कायस्थों ने राजनीति और कला के साथ विभिन्न व्यावसायिक क्षेत्रों में सफलतापूर्वक स्थान प्राप्त कर विद्यमान हैं।
सृष्टि की पुर्नरचना ——
एक कथा में बताया गया है कि महाप्रलय के पश्चात् सृष्टि की पुर्नरचना की जानी थी। भगवान ब्रह्मा तपस्या में लीन थे। करीब हजारों वर्षों की तपस्या के दौरान उनके स्मृति पटल पर एक चित्र अंकित हुआ और गुप्त हो गया। भगवान के मुख से निकल पड़ा चित्रगुप्त कायस्थ। अर्थात जो चित्र गुप्त हो और मन में स्थित हो। इसके पश्चात् जब उनकी नीद्रा टूटी तो सामने दीव्यपुरूष खडे़ थे। इन्हें ही चित्रगुप्त नाम दिया गया। ब्रह्मा जी ने दीव्यपुरूष को महाकाल नगरी में जाकर तपस्या करने को कहा। ये दीव्य पुरूष उज्जैन आए और घोर तप किया। जिसके प्रभाव से सृष्टि के प्रत्येक प्राणि के कर्मों का लेखा – जोखा रखने की शक्ति चित्रगुप्त को प्राप्त हो पाई। इन्होंने मानव कल्याण के लिए शक्तियाँ अर्जित की।
चित्रगुप्त भगवान का पूजन——
कार्तिक शुक्ल द्वितीया व चैत्र मास में कृष्ण पक्ष की द्वितीया को चित्रगुप्त भगवान का पूजा -अर्चना किया जाता है।
दीपावली के पश्चात् द्वितीया तिथि पर मनाई जाने वाली भैया दूज का भी महत्व होता है। मान्यता के अनुसार इस दिन धर्मराज अपनी बहन से मिलने उसके घर पहुँचते हैं।
चित्रगुप्त धाम—-
यमुना तलाई में विराजित भगवान चित्रगुप्त का मंदिर देखने में जितना मनोरम और अद्भुत है उतना ही पौराणिक भी है। जहाँ एक ओर चित्रगुप्त जी के एक हाथ में कर्मों की पुस्तक है वहीं दूसरे हाथ से वे कर्मों का लेखा – जोखा करते दिखलाई पड़ते हैं। इनके हाथ में तलवार भी सुशोभित है। मंदिर में प्रतिष्ठापित मूर्ति के साथ भगवान की दोनों पत्नियाँ इरावति और नंदिनी भी विराजित हैं। जो कि श्री भगवान के कार्यों में योगदान भी देती हैं। इसके अलावा समीप ही धर्मराज की चतुर्भुज मूर्ति भी अत्यंत दुर्लभ हैं। जिसमें भगवान के एक हाथ में अमृत कलश और दूसरे हाथों में शस्त्र दर्शाया गया है। धर्मराज भी लोगों को आर्शीवाद देकर धर्म के अनुसार आचरण करने की प्रेरणा देते हैं।
धर्मराज की मूर्ति के ठीक समीप दोनों ओर उनके दूतों की मूर्तियाँ भी विराजित हैं।
धर्मराज की मूर्ति के उपर ब्रह्म, विष्णु और महेश की मूर्तियाँ स्थापित हैं।
दर्शन करने ,जल सेवन व मिट्टी स्पर्श मात्र से ही जाती हैं रोगी का रोग मुक्त —————-
मंदिर परिसर स्थित यमुना तलाई के जल के सेवन और यहाँ की जलवायु में विचरण करने से लकवे जैसे रोग तक ठीक हो जाते हैं। वर्तमान में भी कई ऐसे उदाहरण देखे गए हैं कि उन भक्तों को रोग यहाँ आकर ठीक हो गए हैं। आज भी कायस्थ महासभा द्वारा इस स्थल को श्री चित्रगुप्त धाम के रूप में पहचाना जाता है।
राजेश नीलकमल रौशन ने बताया कि मंदिर में केवल कागज, कलम और दवात चढ़ाते ही आपकी सारी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। यदि कोई भाग्यहीन हो और अभाव में जीवन जी रहा हो तो उसका भाग्य महज दर्शनों से ही बदल जाता है। ऐसी महिमा इस पौराणिक नगरी में वर्षों तक तपस्या कर ज्ञान प्राप्त करने वाले भगवान चित्रगुप्त महाराज हैं।