विनोद शर्मा की रिपोर्ट।
छौड़ाही (बेगूसराय) : श्रावण मास भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है। ऐसे में धर्मशास्त्र एवं वैदिक ग्रंथों के अनुसार मृत्युंजय देवाधिदेव शिव की साधना उपासना एवं स्वरूप के बारे में अति रहस्यमय तत्व का ज्ञान जरूरी है। शास्त्रों में साफ-साफ लिखा गया है कि जिन्होंने मृत्यु पर जय प्राप्त किया है वही मृत्युंजय हैं। मृत्युंजय का स्वरूप जानने के लिए पहले मृत्युंजय और तत्व किसे कहते हैं यह जान लेना परम आवश्यक है। उक्त उद्गार अयोध्या धाम से पधारे प्रसिद्ध कथावाचक आचार्य श्री लवकुश महाराज छौड़ाही प्रखंड क्षेत्र के भोजा और राजोपुर गांव में आयोजित शिव महात्म परिचर्चा को संबोधित करते हुए व्यक्त किए।
श्री लवकुश महाराज ने कहा, मनुष्य की आयु समाप्त हो जाने पर मानव शरीर जब चेतना विहीन जीवात्मा पुराने शरीर को त्याग कर नवीन शरीर धारण करती है एवं मानव शरीर से प्राण का अंत हो जाना है तो वह मृत्यु कहलाता है। प्रत्येक प्राणी अपने-अपने जीवनकाल में किए गए कार्यों के अनुरूप ही अमृतत्व को प्राप्त करता है।
भगवान शिव के ध्यान पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि र्त्यंबक शिव आठ भुजा से युक्त हैं। उनके एक हाथ में अक्षय माला और दूसरे हाथ में मृग मुद्रा और दो हाथों से दो कलश में अमृतरस लेकर उससे अपने मस्तक को सिचित करते हैं। दो हाथों से उन्हीं कलश को थामे हुए हैं। शेष दो हाथ उन्होंने अंक पर छोड़ रखे हैं। उनमें दो अमृत से पूर्ण घट हैं एवं श्वेत पदम कमल पर विराजमान हैं। साथ ही मुकुट पर बाल चंद्रमा विराजमान हैं। ललाट पर त्रिनेत्र शोभायमान हैं। इस प्रकार के विशिष्ट मृत्युंजय ध्यान स्वरूप के भाव को सदा ही प्रत्येक प्राणी को धारण करना चाहिए। ऊपर जो दोनों प्रकार की अमृतवाणी कही गई है उन दोनों के भगवान शिव शंकर अधिकारी है। अर्थात शिव अपने भक्तों को प्रसन्न होकर यह दोनों वर दे सकते हैं। अमृत पुण्य दो कलश धारण करने का अर्थ यह है की भगवान शिव को कभी भी अमृत का कमी नहीं रहता है। दो अमृत कलश से अपने मस्तक पर सिचन करने का रहस्य है कि मृत्युंजय शिव सदा ही अमृत में सरावोर रहते हैं। अज्ञान युक्त देहादी प्रकृति के परावर्तन के साथ-साथ में भी परिवर्तन ही करता आ रहा हूं। इस प्रकार का ज्ञान ही अज्ञान है और अज्ञान मुक्त परिवर्तन का नाम ही मृत्यु है। इससे विपरीत ज्ञान ही अमृत तत्व है। यही रहस्य वास्तविक में मृत्युंजय स्वरूप तथा मृत्युंजय तत्व है।
उन्होंने शिवभक्तों को बताया कि श्रावण मास में आशुतोष भगवान शंकर की पूजा का विशेष महत्व है। इस मास में जो प्रत्येक दिन पूजन ना कर सके, उन्हें सोमवार को शिव पूजा अवश्य करनी चाहिए। सोमवार को व्रत रखकर शिव आराधना, अभिषेक एवं शिव का विशेष पूजन अवश्य करना चाहिए। इस व्रत में प्रात: स्नान, गंगा स्नान अन्यथा किसी पवित्र नदी, सरोवर या विधिपूर्वक घर पर ही स्नान करके शिवालय जाकर षोडशोपचार पूजन, अभिषेकादि करना चाहिए। श्रावण मास महात्म्य शिव महापुराण की कथा सुनने का भी विशेष महत्व है। श्रावण मास भूतभावन भोलेनाथ का मास है। आचार्य ने कहा कि यह आवश्यक नहीं कि किसी समस्या या पीड़ा के समय ही ईश्वर को याद किया जाए। बिना किसी आवश्यकता के भी हमें ईश्वर को याद करना चाहिए क्योंकि जहां शिव है वहां सब कुछ है। जनकल्याण एवं मोक्ष के लिए शिव आराधना शुभ कल्याणकारी है। इसलिए श्रावण मास का इंतजार सभी उत्सुकता के साथ करते हैं। श्रावण मास में जितने भी सोमवार पड़ते हैं, उन सब में शिवजी का व्रतोपवास किया जाता है।
श्री लवकुश महाराज बताते हैं कि पूर्ण आस्था के साथ इस पूरे मास में श्रद्धापूर्ण एवं विधि-विधानपूर्वक दूध, दही, घी, मधु, गुड़, पंचामृत, भांग इत्यादि के द्वारा पूजा-अर्चना की जाए तो निश्चित रूप से सारी मनोकामनाएं पूर्ण होती है। ऐसे पूजन से ना केवल भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है, बल्कि उस व्यक्ति पर पूर्ण जीवनकाल तक लक्ष्मीजी की भी कृपा बनी रहती है। क्योंकि माता पार्वती स्वयं लक्ष्मी स्वरूपा हैं।
इस अवसर पर रामनरेश यादव, राजनारायण चौधरी, जयप्रकाश चौधरी बमबम,अमन कुमार,दीवाकर जी, हेमंत कुमार, श्रीलाल दास