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उस बेरहम शहर में अब ना रखेंगे कदम आज के बाद..। छौड़ाही पहुंचे प्रवासी कामगार कह रहे हां मैं अब जिंदा हूं। लॉकडाउन के कष्ट को याद कर सिहर जाते हैं कामगार।

बलवंत चौधरी
(बेगूसराय) : दर्द भरे वह 42 दिन मौत से कम नहीं थीं। परदेश में कोरोना बिमारी के भय से कांपते हम लोगों को पेट की आग पल पल तरपा रही थी। लेकिन, अपनों के पास लौटने का हौंसला से थमी हुईं सांसें फिर चलने लगीं।
 बुधवार को स्पेशल ट्रेन से लाए गए प्रवासी कामगार  डर भय भूख की आपबीती सुनाते-सुनाते कई लोगों की आंखें भर आईं। क्वारंटाइन किए गए के कुछ लोगों ने जब अपनी कहानी सुनाई तो रोंगटे खड़े हो गए। चेहरे पर निकली हुई हड्डी और धंसी हुईं आंंखे भी बहुत कुछ कह रही थीं।

लखनपट्टी निवासी मोहम्मद जावेद अख्तर, ऐजनी के मोहम्मद मुज्जवर ने बताया कि गांव से केेेरल के त्रिचूर जिलेे के उल्लूर में काम करने गया था। राजमिस्त्री के रूप में नौ हजार हर महीने और ओवर टाइम का पैसा तय था। किराये पर एक कमरा लेकर हमलोग रहने लगे। होली के बाद रमजान मनाने घर लौटने की योजना बना ही रहे थे कि 24 मार्च को एकाएक काम बंद हो गया। मालिकों ने बताया कि लॉकडाउन हो गया है।
बताया कि हम लोगों ने आरजू मिन्नत भी की कि किसी तरह बिहार पहुंचा दिया जाए, कितु उन लोगों ने यह कहकर मना कर दिया कि फिलहाल संभव नहीं। इसी बीच वहां से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर दो लोगों में कोरोना पॉजिटिव पाया गया। सारी सीमाएं सील कर दी गईं। पुलिस की सख्ती बढ़ा दी गई। हमलोगों के सामने आगे कुआं, पीछे खाई। अब न तो खाने को कुछ था और न ही घर लौटने का उपाय। जान का भय अलग से। एक सप्ताह तक गुड़ के साथ पानी पीकर प्राण रक्षा किया। कोई किसी की मदद नहीं कर रहा था।
 एक मई को जब यह मालूम हुआ कि घर लौटने के लिए ट्रेन खुलने वाली है, तब मन में कुछ आशा जगी। इसी आशा के साथ हम लोग वहां से दो बजे रात में ही पैदल चल दिए। तीन दिन में हम लोग पैदल 95 किलोमीटर चलकर त्रीशुर पहुंच गए। बीच में पुलिस की सख्ती से नजर भी बचानी पड़ रही थी। सारी प्रक्रिया पूरी करने के बाद चार मई की रात ट्रेन में 1000 का टीकट देकर बैठा दरभंगा जंक्शन तक पहुंचा दिया गया। इसके बाद बस से छौड़ाही लाया गया। अपने मिट्टी को छुए तो जिंंदा होने का एहसास हुआ। अब चाहे जो हो, उस बेरहम शहर में नहीं जाएंगे।

 

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